माफ़ करियेगा लम्बे अन्तराल के बाद सामने आने की हिम्मत कर रहा हूं. ब्लागिंग का नशा ज़्यादा हो जाने के कारण मैंने जानबूझकर कुछ दिन की छुट्टी ले ली क्योंकि मैं किसी चीज़ को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे पाता. क्या करूं आदत से मज़बूर हूं. छुट्टी के बाद पता चला कि ब्लाग का पासवर्ड ही भूल गया। हर तरफ से कोशिश करने पर भी बात नहीं बनी। कल बड़े भाई अविनाश वाचस्पति जी से अग्रज सुभाष राय जी के सौजन्य से मुलाकात हुई. उनके निर्देश के बाद आज से फिर हाजिर हूं ब्लागिंग की उसी दुनिया में नई ऊर्जा लेकिन पुरानी ग़ज़ल के साथ उसी पुराने प्यार, मुहब्बत, लाड़, दुलार, अपनेपन की प्रत्याशा में......................
ग़ज़ल
कभी तो दर्ज होगी जुर्म की तहरीर थानों में.
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में.
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कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की,
परिन्दों का यकीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में.
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अजब हैं माइने इस दौर की गूँगी तरक्की के,
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में.
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कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल,
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में.
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भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन,
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में.
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नज़रअंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको,
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में.