Monday, September 27, 2010

मेरा आगरा-2

                 इस वर्ष बाढ़ का प्रकोप कुछ ज्यादा ही देखने को मिला है। पिछले कई वर्षों का रिकार्ड टूट गया। आगरा में सन् 1978 में बाढ़ आयी थी। उस समय के कुछ चित्र अभी भी जेहन में हैं। तीन दिनों तक लगातार बारिश हुई थी। मैं उन दिनों गांव में था। बारिश बन्द होने पर पास में बहने वाली नदी को देखने गये तो पानी पुल से ऊपर होकर बह रहा था। पानी में सांप, चूहे आदि बहते जा रहे थे। लोगों ने लम्बे-लम्बे बांसों में हंसिए बांध रखे थे। जैसे ही काशीफल या कोई फल तैरता हुआ आता तो तुरन्त हंसिया मारकर खींच लेते। जब गांव से आगरा चले तो देखा कि जगह-जगह सड़क फंट गई थी। बड़ी मुश्किल से आगरा पहुंचे। आगरा में जीवनी मंडी उतरे तो घुटने-घुटने पानी था। उतने पानी में हम अपने घर पैदल चार किलोमीटर चलकर पहुंचे थे। रास्ते में चप्पल कहीं नींचे स्लिप हो गई तो मिली ही नहीं। खैर यहां आगरा में अभी इस बार हालात इतने बुरे तो नहीं हुए हैं। उस समय बताते हैं पानी का लेविल 508मीटर तक पहुंचा था इस बार अभी 499मीटर के पास है और इसके 500मीटर से ज्यादा बढ़ने के आसार नहीं हैं, लेकिन यमुना से सटे कुछ शहरी इलाकों में पानी आ पहुंचा है। आज सुबह कैलाश मन्दिर देखने गयां। वहां मुख्य मन्दिर में भीतर पानी भर गया है। मन्दिर के चारों तरफ सड़कें कमर तक पानी में डूब चुकीं थी। लेकिन आस्था इस पर भी भारी थी लोग दूर-दूर से उतने पानी में भी बाबा भोले के दर्शन के लिए आ रहे थे। मैं भीतर पहुंचा लेकिन पीछे के रास्ते से जहां ऊंचा होने के कारण पानी गलियों में नहीं था। आप सबके लिए कुछ चित्र खींचे। आप भी बाबा भोले के दर्शन करें। पानी में डूबे बाबा के दर्शन पता नहीं फिर कितने वर्षों के बाद होंगे।










और अब मेहताब बाग से ताजमहल की कुछ तस्वीरें





            ये बाढ़ तो कुछ दिनों में उतर जायेगी। कुछ बर्बादी के निशान छोड़ेगी और कुछ खेतों में उपजाऊ नयी जमीन भी, लेकिन सोचता हूं कि जो दूसरी बाढें मुल्क में आयी हुई हैं उनसे कब निजात मिलेगी। मसलन, घुन की तरह फैल रहे भ्रष्टाचार की बाढ़, अकर्मण्य नेताओं की बाढ़, साहित्य में स्वयंभुओं की बाढ़, झोलाछाप डाक्टरों की बाढ़, आतंकवाद की बाढ़ आदि-आदि...............  

Sunday, September 5, 2010

मेरे प्रिय कवि

          आदरणीय प्रदीप चौबे जी के नाम से ऐसा  शायद ही कोई शख्स होगा जो परिचित न होगा। हिन्दी काव्य मंच पर हास्य कविता के पुरोधा। लेकिन आज यहां आदरणीय प्रदीप जी के उस रूप से इतर नये रूप से सबको परिचित कराने का मन है। जो लोग उनके निकट नहीं हैं, उनमें से ज्यादातर  इस तथ्य से वाक़िफ़ नहीं होंगे कि प्रदीप जी हास्य कवि से बहुत पहले या ये कहें कि बेसिकली एक ग़ज़लकार हैं। खुद उनके शब्दों में, ‘‘हलफ़ उठाता हूं कि मैं ग़ज़लें आदतन कहता हूं और हास्य व्यंग्य इरादतन।‘‘ उनका एक ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित है, ‘बहुत प्यासा है पानी‘ जिसकी एक प्रति बहुत स्नेह के साथ उन्होंने मुझे भी प्रदान की थी। आज अचानक कुछ पढ़ने का मन हुआ तो उस संकलन पर निगाह गई और तुरन्त मन हुआ कि आप सबको भी प्रदीप जी के उस रूप से परिचित कराया जाय, जिससे मैं वाबस्ता हूं। इस संकलन के अतिरिक्त भी ग़ज़लों पर प्रदीप जी का खास काम है। आरम्भ-1(वार्षिकी), आरम्भ-2(ग़ज़ल विश्वांक-1), आरम्भ-3(ग़ज़ल विषेशांक) तथा आरम्भ-4(ग़ज़ल विश्वांक-2) के रूप में उन्होंने पूरी दुनिया के अगले-पिछले समस्त सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लकारों को जिस मनोयोग के साथ एक जगह इकट्ठा किया है वह अद्भुत है। ग़ज़ल के प्रति उनकी पारखी नज़र को इससे समझा जा सकता है कि आरम्भ-4 के लिए उनके पास लगभग 2000 ग़ज़लें आयी थीं और उनमें से 333 ग़ज़लें प्रकाशन के लिए चुनी गईं थीं। वे 333 ग़ज़लें इस बात का साक्षात प्रमाण हैं कि ग़ज़लों के प्रति उनका समर्पण और समझ किस किस्म की है।  
     आज यहां प्रदीप जी के ग़ज़ल संग्रह, ‘बहुत प्यासा है पानी‘ से चार ग़ज़लें सादर प्रकाशित हैं-






ग़ज़ल-एक
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आप-हम दोनों जले लेकिन मियां।
आप सूरज हो गए हम भट्टियां।
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ये सुरंगों का शहर इसमें भला,
कैसे रोशनदान कैसी खिड़कियां।

या तो चींटी हो गया है आदमी,
या हिमालय हो गईं हैं कुर्सियां।
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ज़िन्दगी अब वो मज़ा देनी लगी,
जैसे बक्से की पुरानी चिट्ठियां।
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कौन जाना चाहता है स्वर्ग तक,
स्वर्ग तक नाहक गई हैं सीढ़ियां।
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ग़ज़ल-दो
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कितनी घबराई है जंगल की हवा।
जब शहर आई है जंगल की हवा।
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झांककर आईनों में झीलों की,
खुद से शरमाई है जंगल की हवा।
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इक तो जंगल में आग फैला दी,
उस पे चिल्लाई है जंगल की हवा।
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सोते मौसम को छोड़ आई है,
कितनी हरजाई है जंगल की हवा।
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भीड़, बस्ती, जुलूस कुछ भी नहीं,
एक तनहाई है जंगल की हवा।
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आप जंगल-सा दर्द देते हैं,
आपने खाई है जंगल की हवा।
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ग़ज़ल-तीन
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हवा के पंख पर बैठा हुआ हूं।
ख़ला की शैर को निकला हुआ हूं।
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बहुत नज़दीक अपने आ गया हूं,
कि मैं जिस रोज़ से तनहा हुआ हूं।
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मुझे आखि़र कोई कैसे मनाए,
मैं अपने आप से रूठा हुआ हूं।
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तुम्हें सब छोड़ कर आना पड़ेगा,
तुम्हारे वास्ते रूसवा हुआ हूं।
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कभी कुछ हूं  कभी कुछ हूं कभी कुछ,
बहुत उलझा बहुत उलझा हुआ हूं।
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फ़रिश्तों से कहो, धोखा न खाएं,
मैं गहरी नींद में सोया हुआ हूं।
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ग़ज़ल-चार
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समंदर की कहानी जानता हूं।
बहुत प्यासा है पानी जानता हूं।
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हमारे शहर में बादल हैं लेकिन,
कहां बरसेगा पानी जानता हूं।
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मुहब्बत, प्यार, खुश्बू, दोस्ती, दिल,
मैं सब लफ्जों के मानी जानता हूं।
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वो चुप रहकर भी क्या-क्या कह रहा है,
मैं उसकी बेजुबानी जानता हूं।
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तेरे क़िस्सों में आखि़र क्या मिलेगा,
वही राजा या रानी जानता हूं।
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बहुत चीख़ेगा फिर रोने लगेगा,
तेरी आदत पुरानी जानता हूं।
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मुझे नीलाम कर देगी किसी दिन,
तुझे ऐ ज़िन्दगानी जानता हूं।