यह हमारे समय का खासकर हिन्दी पट्टी का दुर्भाग्य है कि हम प्रतिभाओं को जीते जी पहचान नहीं पाते, उन्हें उचित स्थान नहीं दे पाते। नजीर, दुष्यन्त, मुक्तिबोध आदि इसके साक्षात प्रमाण हैं और यह तो वे चन्द नाम हैं जो कम से कम प्रकाश में तो आये, उन्हें कभी तो उनका सही स्थान प्राप्त हुआ। तमाम-तमाम नाम आज भी ऐसे होंगे जिन्हें कम ही लोग पहचानते हैं। उनके भाग्य में सिर्फ एक ही कमी है- उन्हें उनका आलोचक नहीं मिला। स्व0हरजीत, स्व0 आनन्द शर्मा जी, आदरणीय निखिल जी आदि ऐसे ही रचनाकार हैं जिनके बारे में मुझे लगता है कि उन्हें जो स्थान प्राप्त हुआ वे उससे कहीं ऊंचे स्थान के हकदार थे और हैं। दूसरी ओर ऐसे भी तथाकथित साहित्यकार हैं, जिन्हें साहित्य का क ख ग भी नहीं आता और उन्होंने जीते जी गली-कूंचे से लेकर देश के प्रतिष्ठित सम्मान को भी प्राप्त किया है। हांलाकि मुझे विश्वास है कि वक्त की झाड़ू एक दिन सारा कूड़ा-कचरा साफ कर देगी और गुमनामी के अंधेरों में खोये सारे रत्न अपनी पूरी आभा के साथ साहित्य और मानवता को आलोकित करेंगे। इसी भावना से मैंने स्व0 हरजीत जी की पांच ग़ज़लें पिछली बार प्रस्तुत की थी और आज इसी क्रम में ‘मेरे प्रिय रचनाकार‘ श्रृंखला में आगरा के आदरणीय निखिल जी के अभी हाल ही में प्रकाशित गीत संग्रह ‘बांसुरी दर्द की‘ से दो गीत प्रस्तुत कर रहा हूं. जुलाई 1937 को उत्तर प्रदेश के जिला मैनपुरी में जन्मे निखिल सन्यासी जी का पूरा नाम गोविन्द बिहारी सक्सैना है। आपके ‘यादों के चम्पई बबूल‘ (काव्य संग्रह) अनुप्रिया, कांटा और कसक, रिश्ते, नया अलबम (उपन्यास) प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल ही में उनका नया काव्य संग्रह ‘बांसुरी दर्द की' प्रकाशित हुआ है। ये तो उनका बहुत छोटा सा औपचारिक परिचय है। सही परिचय तो उनका वही जान सकता है जो उनसे रूबरू हो चुका हो। पूरा जीवन संघर्षों के दरम्यान बिताने के पश्चात भी अपने पूरे चरित्र की रक्षा के साथ कैसे जिया जाता है, इसकी जीती जागती मिसाल हैं निखिल जी।
मुझे लिखने की आवष्यकता नहीं आप स्वयं महसूस करेंगे कि उन्होंने एक-एक पंक्ति को किस तरह भोगा है उसे जिया है और गाया है। शिल्प की दृश्टि से दूसरा गीत तो अद्भुत है हम जैसे नये यात्रियों के लिए तो पूरी गाइड है। मुखड़े में किये गये प्रयोग को निखिल जी ने जिस कुशलता से पूरे गीत में निभाया है यह उन्हीं से संभव है. ऐसा लगता है जैसे पूरे बन्द को पहले खुद जिया और उसके बाद अन्त में एक सूक्ति वाक्य की तरह अनुभवों का निचोड़ प्रस्तुत कर दिया हो।
आपको गीत अच्छे लगें तो आप निखिल जी को उनके मोबाइल न0 91-9997186614 पर या उनके स्थाई पते- 37ए@73, नई आबादी, नगला पदी, दयालबाग, आगरा(उ0प्र0)-282005 पर बधाई दे सकते हैं।
गीत-एक
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साधो! रिश्ते नाते झूठे
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सुविधाओं के सन्धि-पत्र पर
सबके लगे अंगूठे.
साधो रिश्ते नो झूठे.
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बड़े जतन से किये इकट्ठे
कुछ रोड़े कुछ पत्थर.
और करीने से चुन-चुनकर
खड़ा किया अपना घर.
किन्तु पता क्या था सारा श्रम
व्यर्थ चला जायेगा.
पल में सारा कुछ बिखेर
दुर्देव खिलखिलायेगा.
लेकिन अपनी धुन के पक्कों
से कोई कब जीता,
गत-आगत बनकर लौटेगा
लेकर रंग अनूठे.
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जब से बदला है मौसम
रंग बदल गये सुख दुख के.
नजर बचाकर लोग निकल
जाते हैं चुपके-चुपके.
यह भी फेर दिनों का
सपने आते सकुचाते हैं.
जागे हुए रात कटती
दिन संशय के खाते में.
पर इनसे घबराना कैसा
यह भी तो जीवन है.
सच की तपन न सह पाते
अनुमान निकलते झूठे.
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सब दरवाजे बन्द हो गए
बन्द हो गईं राहें.
आशा के पंछी पिंजरे में
घुटती-मरती चाहें.
ऐसे-कैसे उमर कटेगी
हर पल रोते-गाते.
स्नेहहीन दीपक की बुझती
बाती को उकसाते
किश्तों में मरने से अच्छा
एक बार मर जाना
चिन्ताओं से मुक्ति मिलेगी
कोई रोये रूठे.
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गीत-दो
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अमृत मंथन
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आंख में स्वप्न आंजे हुए
हम भटकते रहे उम्र भर.
सिद्धि से साध्य का यश बड़ा
साधकों ने बताया हमें।
अश्रु का कर्ज सिर तक चढ़ा
सांस रहते चुकेगा नहीं.
कोशिशें लाख कर लीजिए
रथ समय का रूकेगा नहीं.
चाह की आंख से मेघ बन
हम बरसते रहे उम्र भर.
तृप्ति से प्यास का घट बड़ा
मरूथलों ने बताया हमें.
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हर तरफ जाल फैले हुए
हर कदम एक संघर्ष है
नोंच फेंके मुखौटे सभी
हारकर भी हमें हर्ष है
हौसलों ने हमें बल दिया
हम उलझते रहे उम्र भर
जीत से हार का सुख बड़ा
अनुभवों ने बताया हमें.
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एक पल भी ठहरती नहीं
ज़िन्दगी एक संग्राम है
मन दषानन अगर है कभी
तो कभी रागमय राम है
बांसुरी दर्द की फूंककर
हम थिरकते रहे उम्र भर
धर्म से कर्म का पद बड़ा
योगियों ने बताया हमें
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जन्म से मृत्यु तक हम जिये
एक ही जन्म में सौ जनम
झूठ को झांकियों में सजा
वक्त-बेवक्त खाई कसम
रेत के ढेर पर हो खड़े
हम अकड़ते रहे उम्र भर
झूठ कोई न सच से बड़ा
झूठ ने ही बताया हमें
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क्या हमारा यही दोष है
गन्ध छीनी नहीं फूल से
सब हलाहल स्वयं पी लिया
बैर साधा न प्रतिकूल से
क्रास पर किन्तु फिर भी चढ़े
हम तड़पते रहे उम्र भर
त्याग का मोल तप से बड़ा
भोगियों ने बताया हमें
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सिर्फ विस्तार की चाह में
हिमशिखर सिन्धु से जा मिले
स्वप्न पूरे न फिर भी हुए
चाहतों के लुटे काफिले
आस्था के युगलपाश में
हम सिमटते रहे उम्र भर
सिन्धु से सीप का मुंह बड़ा
मोतियों ने बताया हमें.
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जिस तरह चल रहा है चले
खेल रूकना नहीं चाहिए
कौन किसकी जगह ले रहा
देखिए देखते जाइए
क्रम न टूटे कभी सृष्टि का
हम बिखरते रहे उम्र भर
वृक्ष से बीज होता बड़ा
आंधियों ने बताया हमें
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