कुछ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध ग़ज़लकार अग्रज श्री अशोक रावत जी ने एक ग़ज़ल संग्रह पढ़ने के लिए दिया था. संग्रह का नाम था ‘एक पुल‘ और ग़ज़लकार का नाम था- हरजीत. नाम पहली बार पढ़ा था. घर जाकर संग्रह की ग़ज़लों को पढ़ा. ग़ज़लों ने पहली ही बार में अपनी गिरफ्त में ले लिया. अगले दिन तुरन्त पूरे संग्रह की फोटो स्टेट करायी और आज भी संग्रह उसी रूप में मेरे पास सुरक्षित है. उस ग़ज़ल संग्रह की अहमियत का अन्दाज़ा आप यूं लगा सकते हैं कि मेरे पास तक़रीबन पचासेक ग़ज़ल संग्रह होंगे लेकिन मेरी नज़र में उससे अच्छा कोई नहीं. हिन्दी में ग़ज़ल को प्रतिष्ठित करने में दुष्यन्त का योगदान सर्वोपरि है. इससे कोई इन्कार नहीं कि उनकी ग़ज़लों का कैनवास निश्चित रूप से बहुत बड़ा है, लेकिन मैं जब भी हरजीत जी की ग़ज़लों से गुज़रता हूं तो महसूस करता हूं कि हरजीत हिन्दी में ग़ज़ल विधा का आदर्श रूप निश्चित रूप से प्रस्तुत करते हैं. ये हरजीत का दुर्भाग्य था कि उन्हें कोई आलोचक नहीं मिला. आज यहां हरजीत जी की पांच ग़ज़लों से आप सबको गुज़ारने का मन है. ग़ज़लें पढ़ें और स्वयं उस रोमांच से गुज़रें जिससे मैं अक्सर गुज़रता हूं-
1-
अपने मन का रूझान क्या देखूं.
लौटना है थकान क्या देखूं.
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आंख टूटी सड़क से हटती नहीं,
रास्ते के मकान क्या देखूं.
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मैंने देखा है उसको मरते हुए,
ये ख़बर ये बयान क्या देखूं.
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कहने वालों के होठ देख लिये,
सुनने वालों के कान क्या देखूं.
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इस तरफ से खड़ी चढ़ाई है,
उस तरफ से ढलान क्या देखूं.
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2-
मुझको मेरे ही खेत में धरती उतार दे.
मैं धान बोऊं और वो पानी उतार दे.
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पानी बढ़ा हुआ है छतें अब ज़मीन हैं,
कच्चे घरों में धूप की कश्ती उतार दे.
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मन को फ़क़ीर कर तो कोई बात भी बने
ओढ़ी हुई ये तन की फ़क़ीरी उतार दे.
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तू अपने घर में बिखरी हुई ख़ुश्बुयें पहन,
अब ये लिबासे-ख़ानाबदोशी उतार दे.
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खिड़की के पास आऊं तो भीतर भी आ सकूं,
चिड़िया ये कह रही है कि जाली उतार दे.
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3-
एक बड़े दरवाज़े में था छोटा सा दरवाज़ा और.
अस्ल हक़ीक़त और थी लेकिन सबका था अन्दाज़ा और.
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मैं तो पहले ही था इतने रंगों से बेचैन बहुत,
मेरी बेचैनी देखी तो उसने रंग नवाज़ा और.
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कितने सारे लोग यहां हैं अपनी जगह से छिटके हुए,
चेहरे और लिबास भी और हैं हालात और तक़ाज़ा और.
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जब तक इसकी दरारों को इस घर के लोग नहीं भरते,
तब तक इस घर की दीवारें भुगतेंगी ख़मियाज़ा और.
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ख़ुश्बू रंग परिन्दे पत्ते बेलें दलदल जिसमें थे,
उस जंगल से लौट के पाया हमने ख़ुद को ताज़ा और.
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4-
अब इन घरों से दूर निकलने की बात कर.
ठहराव आ गया है तो चलने की बात कर.
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मेरी तरह जो तूने अगर देखना है सब,
मेरी तरह ही ख़ुद को बदलने की बात कर.
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तू लफ़्ज है तो मेरी किसी नज़्म में भी आ,
इस रूह के सुरों में भी ढलने की बात कर.
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पगडण्डियां न हों तो सफ़र का मज़ा नहीं,
काली सड़क पे रोज़ न चलने की बात कर.
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बहना है तुझको फिर से समन्दर की रूह तक,
अब धूप आ गई है पिघलने की बात कर.
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मुद्दत के बाद आज मिली है मुझे फ़ुर्सत,
गिरने की बात कर न संभलने की बात कर.
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5-
धूप में कुछ लोग आये और ये कहने लगे.
हम तो सबके साथ हैं जो चाहे अपना साथ दे.
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अपनी पहली ख्वाहिशें को भूलने के बाद अब,
ख्वाहिशों और ज़िन्दगी में फ़र्क़ सारे मिट गये.
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बीज भी हैं धूप भी पानी भी है मौसम भी है,
कोंपलें फूटें तो मिट्टी से नई ख़ुशबू मिले.
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इस ज़मीं पर नींद के आगाज़ से पहले कहीं,
क्या सफ़र करती थी दुनिया जागते ही जागते.
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वक्त ने ज़र्रों को बारीकी से तोड़ा तो मगर,
रूक गये वो टूटने से और कितना टूटते.
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रजजगा दिनभर मेरी आंखें लिये फिरता रहा,
शाम लौटा साथ लेकर वो बहुत से रतजगे.
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एक अनुरोधः-हरजीत जी के विषय में उनके ग़ज़ल संग्रह ‘एक पुल‘ के अलावा मेरा परिचय सिफ़र ही है. मेरा सभी मित्रों/अग्रजों से निवेदन है कि यदि वे हरजीत जी के विषय में कोई जानकारी या लिंक(नेट पर) रखते हैं तो कृपया साझा करने का कष्ट करें.