Saturday, August 7, 2010

मेरे प्रिय रचनाकार-प्रताप दीक्षित जी

            आदरणीय प्रताप दीक्षित जी आगरा के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आपका जन्म 7,जनवरी सन् 1932 को ग्राम-परा जिला-भिण्ड(मध्य प्रदेश) में हुआ। आपके तीन कविता संग्रह अब तक प्रकाशित हैं। ‘बांसों के वन‘, सन् 1984, ‘अंजुरी भर बाजरा‘, 2003 तथा ‘हमाई बोली हमाए गीत‘, 2005
मेरी इतनी हैसियत नहीं है कि मैं आदरणीय प्रताप जी के विषय में कुछ कह सकूं। इसके लिए मैं क0मुं0 हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ आगरा के तत्कालीन निदेशक प्रो0 जयसिंह जी द्वारा प्रताप जी के काव्य संग्रह ‘अंजुरी भर बाजरा‘ की प्रस्तावना में कहे गए शब्दों से काम चलाता हूं-
‘‘आप कल्पना कीजिए एक ऐसी नदी की जिसका जन्म अग्नि की कोख से हुआ हो। जो ऊपर से शान्त, गम्भीर और अद्भुत लयात्मक प्रवाह के साथ निस्संग भाव से बही जा रही है, किन्तु उसके भीतर अपनी जननी का ताप और परिवेशगत उत्तेजनाओं की उद्दाम खलबलाहट है। यदि आप इसके किनारे-किनारे चलेंगे तो उसके एक रस मंद-मंद प्रवाह से आप पहले परिचित होंगे फिर रीझेंगे और फिर अन्ततः खीझने लगेंगे, किन्तु जैसे ही आप इस नदी में आगा-पीछा सोचे बिना कूद पड़ेंगे आप इसके संक्रामक ताप और आत्मा की पोर-पोर को छू लेने वाली खलबलाहट में इस कदर डूबेंगे कि आप, आप नहीं रह जायेंगे। बन जायेंगे इस नदी के समूचे अस्तित्व का अभिन्न अंश और तब यह नदी आपमें होगी और आप होंगे नदी में। इस नदी में जाते ही आपके अस्तित्व का कुंभ फूट जायेगा और कुंभ-जल नदी में समाकर समूचे प्रवाह को अधिक गति दे पाने में सक्षम होगा।
        आज यहां मेरे प्रिय रचनाकार श्रृंखला में आदरणीय प्रताप जी के दो गीत प्रस्तुत हैं। अच्छे लगें तो प्रताप जी के अच्छे स्वास्थ्य की कामना के साथ उन्हें सीधे भी बधाई दें। उनका सम्पर्क सूत्र है-

34-ए, इंदिरा कालोनी,
शाहगंज, आगरा- 282010
फोन-0562-2213401

गीत-एक

जिन्दगी कहां पर ये हमें खींच लाई है।
एक ओर कुआं यहां एक ओर खाई है।

चुगलखोर मौसम का जोरों पर धन्धा है।
लालची भविष्य और वर्तमान अन्धा है।
दागदार चूनर को ओढ़े है चांदनी,
सूरज के अंग-अंग पिती उछर आयी है।

उलट फेर करनी औ कथनी के खातों में।
मधुवन की बागडोर पतझर के हाथों में।
बगुले हैं सिखा रहे हंसों को नैतिकता,
हो रही यहां पर ये कौन सी पढ़ाई है।

ज्वार और भाटों का अनुचर तूफान है।
सगर की छाती पर टूटा जलयान है। 
ऐसी स्थितियों में आप ही बताइए,
जायें किस ओर हम तटों से लड़ाई है।

जातिवाद फैल रहा द्रुमों में, लताओं में।
भाई-भतीजावाद सावनी घटाओं में।
भूखी है मेड़ और प्यासा हर खेत है,
गांव-गांव टहल रही डायन मंहगाई है।
गीतों के शब्द सुघर भाव विद्रूप हैं।
अर्थ को फटकने की कोशिश में सूप हैं।
सहित्यिक गंगा में कैसे हम स्नान करें,
घाटों पर पंडों ने फैला दी काई है।

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गीत-दो

जिनके गीत बिना बैशाखी
होते खड़े नहीं।
उन पर क्या आश्चर्य
कि वे शिखरों पर चढ़े नहीं।

जो दीखे तक नहीं कभी 
हमको संघर्षों में।
जो मनुष्य से बने देवता
कुछ ही वर्षों में।
नाम भले मिल जायें स्वर्ण-
अक्षरों से होंगे पर,
पन्ने जड़े नहीं।

चयन बड़ी चतुराई से-
जो लहरों का करते।
कभी किसी के, कभी किसी के
संग में हैं बहते।
जहां सिर्फ पूजा होती-
बंटता परसाद नहीं-
उस मंदिर की कभी 
सीढ़ियों पर ये चढ़े नहीं।

पास हमारे इनकी 
सच्चाई का लेखा है।
बिना बात के डंक-
मारते हमने देखा है।
जिस-जिस पत्तल में खाया,
उसमें ही छेद किया,
फिर भी हमने इन्हें 
शर्म से देखा गढ़े नहीं।

हैं इनका गन्तव्य न कोई
सुविधाभोगी हैं।
आत्म प्रशंसा करने-
सुनने के ये रोगी हैं।
इनके घर का पानी भरते
पंत, निराला हैं।
वैसे जितना कहते-
उतना हैं ये पढ़े नहीं।