आदरणीय प्रदीप चौबे जी के नाम से ऐसा शायद ही कोई शख्स होगा जो परिचित न होगा। हिन्दी काव्य मंच पर हास्य कविता के पुरोधा। लेकिन आज यहां आदरणीय प्रदीप जी के उस रूप से इतर नये रूप से सबको परिचित कराने का मन है। जो लोग उनके निकट नहीं हैं, उनमें से ज्यादातर इस तथ्य से वाक़िफ़ नहीं होंगे कि प्रदीप जी हास्य कवि से बहुत पहले या ये कहें कि बेसिकली एक ग़ज़लकार हैं। खुद उनके शब्दों में, ‘‘हलफ़ उठाता हूं कि मैं ग़ज़लें आदतन कहता हूं और हास्य व्यंग्य इरादतन।‘‘ उनका एक ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित है, ‘बहुत प्यासा है पानी‘ जिसकी एक प्रति बहुत स्नेह के साथ उन्होंने मुझे भी प्रदान की थी। आज अचानक कुछ पढ़ने का मन हुआ तो उस संकलन पर निगाह गई और तुरन्त मन हुआ कि आप सबको भी प्रदीप जी के उस रूप से परिचित कराया जाय, जिससे मैं वाबस्ता हूं। इस संकलन के अतिरिक्त भी ग़ज़लों पर प्रदीप जी का खास काम है। आरम्भ-1(वार्षिकी), आरम्भ-2(ग़ज़ल विश्वांक-1), आरम्भ-3(ग़ज़ल विषेशांक) तथा आरम्भ-4(ग़ज़ल विश्वांक-2) के रूप में उन्होंने पूरी दुनिया के अगले-पिछले समस्त सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लकारों को जिस मनोयोग के साथ एक जगह इकट्ठा किया है वह अद्भुत है। ग़ज़ल के प्रति उनकी पारखी नज़र को इससे समझा जा सकता है कि आरम्भ-4 के लिए उनके पास लगभग 2000 ग़ज़लें आयी थीं और उनमें से 333 ग़ज़लें प्रकाशन के लिए चुनी गईं थीं। वे 333 ग़ज़लें इस बात का साक्षात प्रमाण हैं कि ग़ज़लों के प्रति उनका समर्पण और समझ किस किस्म की है।
आज यहां प्रदीप जी के ग़ज़ल संग्रह, ‘बहुत प्यासा है पानी‘ से चार ग़ज़लें सादर प्रकाशित हैं-
ग़ज़ल-एक
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आप-हम दोनों जले लेकिन मियां।
आप सूरज हो गए हम भट्टियां।
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ये सुरंगों का शहर इसमें भला,
कैसे रोशनदान कैसी खिड़कियां।
या तो चींटी हो गया है आदमी,
या हिमालय हो गईं हैं कुर्सियां।
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ज़िन्दगी अब वो मज़ा देनी लगी,
जैसे बक्से की पुरानी चिट्ठियां।
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कौन जाना चाहता है स्वर्ग तक,
स्वर्ग तक नाहक गई हैं सीढ़ियां।
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ग़ज़ल-दो
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कितनी घबराई है जंगल की हवा।
जब शहर आई है जंगल की हवा।
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झांककर आईनों में झीलों की,
खुद से शरमाई है जंगल की हवा।
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इक तो जंगल में आग फैला दी,
उस पे चिल्लाई है जंगल की हवा।
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सोते मौसम को छोड़ आई है,
कितनी हरजाई है जंगल की हवा।
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भीड़, बस्ती, जुलूस कुछ भी नहीं,
एक तनहाई है जंगल की हवा।
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आप जंगल-सा दर्द देते हैं,
आपने खाई है जंगल की हवा।
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ग़ज़ल-तीन
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हवा के पंख पर बैठा हुआ हूं।
ख़ला की शैर को निकला हुआ हूं।
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बहुत नज़दीक अपने आ गया हूं,
कि मैं जिस रोज़ से तनहा हुआ हूं।
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मुझे आखि़र कोई कैसे मनाए,
मैं अपने आप से रूठा हुआ हूं।
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तुम्हें सब छोड़ कर आना पड़ेगा,
तुम्हारे वास्ते रूसवा हुआ हूं।
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कभी कुछ हूं कभी कुछ हूं कभी कुछ,
बहुत उलझा बहुत उलझा हुआ हूं।
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फ़रिश्तों से कहो, धोखा न खाएं,
मैं गहरी नींद में सोया हुआ हूं।
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ग़ज़ल-चार
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समंदर की कहानी जानता हूं।
बहुत प्यासा है पानी जानता हूं।
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हमारे शहर में बादल हैं लेकिन,
कहां बरसेगा पानी जानता हूं।
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मुहब्बत, प्यार, खुश्बू, दोस्ती, दिल,
मैं सब लफ्जों के मानी जानता हूं।
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वो चुप रहकर भी क्या-क्या कह रहा है,
मैं उसकी बेजुबानी जानता हूं।
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तेरे क़िस्सों में आखि़र क्या मिलेगा,
वही राजा या रानी जानता हूं।
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बहुत चीख़ेगा फिर रोने लगेगा,
तेरी आदत पुरानी जानता हूं।
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मुझे नीलाम कर देगी किसी दिन,
तुझे ऐ ज़िन्दगानी जानता हूं।
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ReplyDeleteआदरणीय प्रदीप चौबे जी को सादर नमन!!
ReplyDeleteप्रदीप जी को एक जमाने में हम मंच से सुनते रहे हैं। होशंगाबाद के सुरेश उपाध्याय,हरदा के माणिक वर्मा और प्रदीप जी के बड़े भाई शैल चतुर्वेदी तीनों एक साथ मंच पर होते थे तो अलग ही माहौल बनता था।
ReplyDeletebhai sanjeevji bahut bahut badhai bahut achchi jankari mili bhai pradeep chubeji ke bare me
ReplyDeleteसंजीव जी,
ReplyDeleteआभार. आपके सौजन्य से चौबे जी पढने को मिले!
आशीष
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बैचलर पोहा!!!
अदर्णीय प्रदीप चौबे जी को नमन। बहुत दिनों बाद उनकी कृ्तियों को पढा है लाजवाब लिखते हैं सभी गज़लें एक से बढ कर एक हैं। एक बार फिर आऊँगी उन्हें पढने। धन्यवाद और शुभकामनायें
ReplyDelete.
ReplyDeleteप्रदीप चौबे जी को सादर नमन!!
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ये सुरंगों का शहर इसमें भला,
ReplyDeleteकैसे रोशनदान कैसी खिड़कियां ...
बहुत खूब .... प्रदीप चौबे जी को आजतक हास्य कवि के रूप में ही जाना था ... आज उनके संजीदा पक्ष से परिचय करवाने का बहुत बहुत शुक्रिया .... बहुत ही संवेदनशील शेर हैं .... बहुत ही सामयिक और सार्थक ..... जमाने की चाल को बाखूबी लिखा है ....
ज़िन्दगी अब वो मज़ा देनी लगी,
ReplyDeleteजैसे बक्से की पुरानी चिट्ठियां।
gajab .....ati sundar....lajawab
बेहतरीन ग़ज़लें हैं चौबे जी की...सत्य कहा हम तो उनके हास्य रूप से ही परिचित थे...आपका आभार उनका ये अनमोल परिचय हम तक पहुँचाने के लिए..
ReplyDeleteनीरज
आपका लेख दुबारा पढ़ा...पहले से भी ज्यादा अच्छा लगा....आपकी मेहनत के लिए तथा महान हस्ती से परिचय के लिए आभार।
ReplyDeletePRADEEP ke jehan men jindagee ke nayab anubhavon ka khajaana hai aur unkee gajalon men aakar kuchh bahut maamulee se lagane vaale jumale muhavaron jaisi dhvani dene ke liye majboor ho jaate hain. aap padhate jaiye..bakse kee puraanee chitthiyaan, surangon ka shahar, vahee raaja ya raanee, ghabaraai hava, pyaasa paanee, aise arthsampann jumalon kee bharmaar dikhatee hai pradeep kee gajalon men. yahee prayog rachana men nayee jaan phoonkate hain aur use bilkul alag vyanjana dete hain. dhanyvaad Sanjeev, tumane pradeep ko padhavaaya.
ReplyDeletePRADEEP JI SE MERA PARICHAY PURANA HAI. UNHONE CHHATTISGARH SE HI KAVY-YATRA SHUROO KI . VE PYAREE GHAZALE KAHATE HAI. MAIN KAI BAAR SUN CHUKA HOO. AAJ UNHE PARH KAR AUR AANAND AAYA. DHANYVAAD, UNKA YAH ROOP DIKHANE K LIYE.
ReplyDeleteचौबेजी को पालागन !
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार !
sanjiv bhai,
ReplyDeletenamaskar,
aaj aanand aa gaya,pradeepji ki gajalon ko pada,
ये सुरंगों का शहर इसमें भला,
कैसे रोशनदान कैसी खिड़कियां।
ज़िन्दगी अब वो मज़ा देनी लगी,
जैसे बक्से की पुरानी चिट्ठियां।
बहुत नज़दीक अपने आ गया हूं,
कि मैं जिस रोज़ से तनहा हुआ हूं।
फ़रिश्तों से कहो, धोखा न खाएं,
मैं गहरी नींद में सोया हुआ हूं।
वो चुप रहकर भी क्या-क्या कह रहा है,
मैं उसकी बेजुबानी जानता हूं।
bahut pasand aaye