Friday, December 28, 2012

मेरे प्रिय रचनाकार-अशोक रावत

          अशोक रावत नाम है एक अलग अंदाज का, एक अलग रोशनी का| दुष्यंत के बाद हिन्दी में ग़ज़ल को ज़मीनी (हारिजन्टल) विस्तार तो खूब मिला, लेकिन आसमानी (वर्टिकल) विस्तार बहुत ज्यादा नहीं। दुष्यंत की ग़ज़लों में इतनी चमक थी कि  ज्यादातर हिन्दी ग़ज़लकार उन  जैसा बनने के मोह में फंसे रहे। जिन ग़ज़लकारों ने हिन्दी में ग़ज़ल को वर्टिकल  विस्तार देने की सफल कोशिश की है, उनमें अशोक रावत जी का नाम अग्रिम पंक्ति में रखा जा सकता है। उन्होंने हिन्दी में ग़ज़ल को नयी भाषा, नये संस्कार और नयी कहन दी है, जो उनकी अपनी है। अशोक जी की ग़ज़लों को आप भीड़ में पहचान सकते हैं। यानि की उनके पास अपना मुहावरा है। ये वो गुण है, जिसकी तलाश हर साहित्यकार को रहती है। ग़ज़लों की दुनिया में पूरी उम्र गुज़ार देने के  पश्चात  भी ये हर किसी को नहीं प्राप्त होता। अशोक जी की ग़ज़लों का दूसरा गुण है कि वे कहीं से भी आयातित नहीं लगतीं। उनमें अपनी मिट्टी, अपने भाषाई सौन्दर्य और अपनी सांस्कृतिक चेतना की महक हर किसी को अपना दीवाना बना लेती  है। 15 नवम्बर, 1953  को ग्राम-मलिकपुर, मथुरा (उत्तर प्रदेश) में जन्मे अशोक रावत का एक ग़ज़ल संग्रह ‘थोड़ा सा ईमान‘ वर्ष 2003 में प्रकाशित हो चुका है। देश की लगभग हर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका में उनकी ग़ज़लें प्रकाशित होती रहीं हैं| संप्रति वे  भारतीय खाद्य निगम में उच्च पद पर नोएडा में पदस्थ हैं। यहां प्रस्तुत हैं उनकी कुछ ग़ज़लें........ 
                                                   

1-

जो समझते हैं कि मेरी मुश्किलों का हल नहीं है 

चेतना में उनकी शायद कोई नैतिक बल नहीं है 

... सब पता है राजपथ पर लोग क्यों चिल्ला रहे हैं 
राजमहलों में तअज्जुब है कोई हलचल नहीं है

क्या हमे समझा रहे हैं ये सियासत के सिपाही
राजधानी है जी दिल्ली ये कोई जंगल नहीं है 

वो कोई अनजान दस्तक दे रहा है,वर्ना मेरे 
गेट पर ताला नहीं है द्वार पर साँकल नहीं है 

जिस तरफ़ भी देखता हूँ गर्द है बस आसमाँ पर 
एक भी तारा नहीं है एक भी बादल नहीं है 

मैं ये वादा कर रहा हूँ अब नहीं ये सब सहूँगा 
मेरे हाथों में भले ही आज गंगाजल नहीं है


2-


सफ़ाई पर सफ़ाई दे रहा है, 

उसे भी सब दिखाई दे रहा है.

मैं कैसे चैन से घर बैठ जाऊँ,
कहीं कोई दुहाई दे रहा है.

जो गाली दुश्मनों ने भी नहीं दी,
वो गाली खास भाई दे रहा है. 

उन्हें लगता है हम उल्लू हैं, वरना, 
उन्हें सब कुछ सुनाई दे रहा है. 

मेरी तकलीफ़ को समझे बिना ही,
वो जाने क्या दवाई दे रहा है. 

मेरी ग़ज़लो, मुझे भी तो बताओ,
ज़माना क्यों बधाई दे रहा है. 

कि जैसे हम समझते ही नहीं कुछ,
वो कुछ ऐसे सफ़ाई दे रहा है.


3-


मदद के वास्ते आखिर कोई कब तक दुहाई दे,

मेरी आवाज़ संसद में किसी को तो सुनाई दे. 

तेरे लफ़्ज़ों पे अब कोई भरोसा ही नहीं करता,
तू चाहे कैमरों के सामने जितनी सफ़ाई दे. 

तेरी हर घोषणा में चाँदनी का ज़िक्र होता है, 
कभी ये चाँद पूनम का हमें भी तो दिखाई दे.

यहाँ दो वक़्त की रोटी जुटाना भी असम्भव है, 
ये किसकी चाहतों में था के तू मक्खन मलाई दे 

नज़र के सामने कुछ भी न हो, हम क्या कहें इसको, 
मगर एहसास में चलता हुआ कोई दिखाई दे. 

मुझे इंसानियत के नाम पर पूरा भरोसा है,
मुझे चिंता नहीं, कोई भलाई दे, बुराई दे. 

तअज्जुब है कि आखिर किस तरह मैं कर गुज़रता हूँ, 
क़दम रुकते नहीं तब भी, न जब कुछ भी सुझाई दे.


4-


सभी तय कर रहे हैं बस मुझी से तय नहीं होते, 

ये दिल के फ़ासले कारीगरी से तय नहीं होते. 

ज़रा सा झाँक कर तो देखिये वीरान आखों में,
सभी एहसास आखों की नमी से तय नहीं होते. 

ये कारोबार में उलझे हुए लोगों की दुनिया है, 
नज़र के फ़ैसले अब ज़िंदगी से तय नहीं होते. 

न मेरी नींद मेरी है, न मेरे ख़्वाब मेरे हैं, 
...मेरे दिन रात अब मेरी ख़ुशी से तय नहीं होते. 

छुपा होता है कोई दर्द ही हर मुस्कराहट में,
कभी सुख चैन होठों की हँसी से तय नहीं होते. 

हमें कोई बताए तो कि आख़िर माजरा क्या है, 
अँधेरों के सफ़र क्यों रौशनी से तय नहीं होते. 

हम अपने दिल को आख़िर किस तरह ये बात समझाएं,
जहाँ के रुख़ हमारी शायरी से तय नहीं होते.


5-


कुछ भी कीजिये किसी का डर नहीं रहा, 

ठीक से विरोध कोई कर नहीं रहा.

कोशिशों में खोट हो ये बात भी नहीं, 
पर समय किसी तरह गुज़र नहीं रहा.

वो जो कर रहे हैं मेरे काम का नहीं,
मैं जो चाहता हूँ कोई कर नहीं रहा.

जो किसी की ज़िंदगी की आस बन सके, 
बात में किसी की वो असर नहीं रहा.

इस लिये भी ज़िंदगी से निभ नहीं सकी,
मेरे सोच में अगर मगर नहीं रहा.

उसकी आस्था है लोकतंत्र में मगर,
बात - चीत वो किसी से कर नहीं रहा.

मेरे शेर बार - बार याद आयेंगे, 
कल में आप सब के बीच अगर नहींरहा.



Wednesday, November 3, 2010

यूं ही

सभी मित्रों/शुभचिंतकों को दीपपर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
 पिछले दस अक्टूबर को एक छोटी सी दुर्घटना में दांए कंधे में फ्रैक्चर के कारण नेट से दूर हूं। संभवतः तीन माह तक दूर रहूं।
 तो ठीक होकर फिर से आप सबसे जुड़ता हूं.......................

Monday, September 27, 2010

मेरा आगरा-2

                 इस वर्ष बाढ़ का प्रकोप कुछ ज्यादा ही देखने को मिला है। पिछले कई वर्षों का रिकार्ड टूट गया। आगरा में सन् 1978 में बाढ़ आयी थी। उस समय के कुछ चित्र अभी भी जेहन में हैं। तीन दिनों तक लगातार बारिश हुई थी। मैं उन दिनों गांव में था। बारिश बन्द होने पर पास में बहने वाली नदी को देखने गये तो पानी पुल से ऊपर होकर बह रहा था। पानी में सांप, चूहे आदि बहते जा रहे थे। लोगों ने लम्बे-लम्बे बांसों में हंसिए बांध रखे थे। जैसे ही काशीफल या कोई फल तैरता हुआ आता तो तुरन्त हंसिया मारकर खींच लेते। जब गांव से आगरा चले तो देखा कि जगह-जगह सड़क फंट गई थी। बड़ी मुश्किल से आगरा पहुंचे। आगरा में जीवनी मंडी उतरे तो घुटने-घुटने पानी था। उतने पानी में हम अपने घर पैदल चार किलोमीटर चलकर पहुंचे थे। रास्ते में चप्पल कहीं नींचे स्लिप हो गई तो मिली ही नहीं। खैर यहां आगरा में अभी इस बार हालात इतने बुरे तो नहीं हुए हैं। उस समय बताते हैं पानी का लेविल 508मीटर तक पहुंचा था इस बार अभी 499मीटर के पास है और इसके 500मीटर से ज्यादा बढ़ने के आसार नहीं हैं, लेकिन यमुना से सटे कुछ शहरी इलाकों में पानी आ पहुंचा है। आज सुबह कैलाश मन्दिर देखने गयां। वहां मुख्य मन्दिर में भीतर पानी भर गया है। मन्दिर के चारों तरफ सड़कें कमर तक पानी में डूब चुकीं थी। लेकिन आस्था इस पर भी भारी थी लोग दूर-दूर से उतने पानी में भी बाबा भोले के दर्शन के लिए आ रहे थे। मैं भीतर पहुंचा लेकिन पीछे के रास्ते से जहां ऊंचा होने के कारण पानी गलियों में नहीं था। आप सबके लिए कुछ चित्र खींचे। आप भी बाबा भोले के दर्शन करें। पानी में डूबे बाबा के दर्शन पता नहीं फिर कितने वर्षों के बाद होंगे।










और अब मेहताब बाग से ताजमहल की कुछ तस्वीरें





            ये बाढ़ तो कुछ दिनों में उतर जायेगी। कुछ बर्बादी के निशान छोड़ेगी और कुछ खेतों में उपजाऊ नयी जमीन भी, लेकिन सोचता हूं कि जो दूसरी बाढें मुल्क में आयी हुई हैं उनसे कब निजात मिलेगी। मसलन, घुन की तरह फैल रहे भ्रष्टाचार की बाढ़, अकर्मण्य नेताओं की बाढ़, साहित्य में स्वयंभुओं की बाढ़, झोलाछाप डाक्टरों की बाढ़, आतंकवाद की बाढ़ आदि-आदि...............  

Sunday, September 5, 2010

मेरे प्रिय कवि

          आदरणीय प्रदीप चौबे जी के नाम से ऐसा  शायद ही कोई शख्स होगा जो परिचित न होगा। हिन्दी काव्य मंच पर हास्य कविता के पुरोधा। लेकिन आज यहां आदरणीय प्रदीप जी के उस रूप से इतर नये रूप से सबको परिचित कराने का मन है। जो लोग उनके निकट नहीं हैं, उनमें से ज्यादातर  इस तथ्य से वाक़िफ़ नहीं होंगे कि प्रदीप जी हास्य कवि से बहुत पहले या ये कहें कि बेसिकली एक ग़ज़लकार हैं। खुद उनके शब्दों में, ‘‘हलफ़ उठाता हूं कि मैं ग़ज़लें आदतन कहता हूं और हास्य व्यंग्य इरादतन।‘‘ उनका एक ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित है, ‘बहुत प्यासा है पानी‘ जिसकी एक प्रति बहुत स्नेह के साथ उन्होंने मुझे भी प्रदान की थी। आज अचानक कुछ पढ़ने का मन हुआ तो उस संकलन पर निगाह गई और तुरन्त मन हुआ कि आप सबको भी प्रदीप जी के उस रूप से परिचित कराया जाय, जिससे मैं वाबस्ता हूं। इस संकलन के अतिरिक्त भी ग़ज़लों पर प्रदीप जी का खास काम है। आरम्भ-1(वार्षिकी), आरम्भ-2(ग़ज़ल विश्वांक-1), आरम्भ-3(ग़ज़ल विषेशांक) तथा आरम्भ-4(ग़ज़ल विश्वांक-2) के रूप में उन्होंने पूरी दुनिया के अगले-पिछले समस्त सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लकारों को जिस मनोयोग के साथ एक जगह इकट्ठा किया है वह अद्भुत है। ग़ज़ल के प्रति उनकी पारखी नज़र को इससे समझा जा सकता है कि आरम्भ-4 के लिए उनके पास लगभग 2000 ग़ज़लें आयी थीं और उनमें से 333 ग़ज़लें प्रकाशन के लिए चुनी गईं थीं। वे 333 ग़ज़लें इस बात का साक्षात प्रमाण हैं कि ग़ज़लों के प्रति उनका समर्पण और समझ किस किस्म की है।  
     आज यहां प्रदीप जी के ग़ज़ल संग्रह, ‘बहुत प्यासा है पानी‘ से चार ग़ज़लें सादर प्रकाशित हैं-






ग़ज़ल-एक
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आप-हम दोनों जले लेकिन मियां।
आप सूरज हो गए हम भट्टियां।
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ये सुरंगों का शहर इसमें भला,
कैसे रोशनदान कैसी खिड़कियां।

या तो चींटी हो गया है आदमी,
या हिमालय हो गईं हैं कुर्सियां।
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ज़िन्दगी अब वो मज़ा देनी लगी,
जैसे बक्से की पुरानी चिट्ठियां।
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कौन जाना चाहता है स्वर्ग तक,
स्वर्ग तक नाहक गई हैं सीढ़ियां।
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ग़ज़ल-दो
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कितनी घबराई है जंगल की हवा।
जब शहर आई है जंगल की हवा।
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झांककर आईनों में झीलों की,
खुद से शरमाई है जंगल की हवा।
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इक तो जंगल में आग फैला दी,
उस पे चिल्लाई है जंगल की हवा।
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सोते मौसम को छोड़ आई है,
कितनी हरजाई है जंगल की हवा।
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भीड़, बस्ती, जुलूस कुछ भी नहीं,
एक तनहाई है जंगल की हवा।
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आप जंगल-सा दर्द देते हैं,
आपने खाई है जंगल की हवा।
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ग़ज़ल-तीन
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हवा के पंख पर बैठा हुआ हूं।
ख़ला की शैर को निकला हुआ हूं।
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बहुत नज़दीक अपने आ गया हूं,
कि मैं जिस रोज़ से तनहा हुआ हूं।
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मुझे आखि़र कोई कैसे मनाए,
मैं अपने आप से रूठा हुआ हूं।
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तुम्हें सब छोड़ कर आना पड़ेगा,
तुम्हारे वास्ते रूसवा हुआ हूं।
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कभी कुछ हूं  कभी कुछ हूं कभी कुछ,
बहुत उलझा बहुत उलझा हुआ हूं।
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फ़रिश्तों से कहो, धोखा न खाएं,
मैं गहरी नींद में सोया हुआ हूं।
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ग़ज़ल-चार
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समंदर की कहानी जानता हूं।
बहुत प्यासा है पानी जानता हूं।
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हमारे शहर में बादल हैं लेकिन,
कहां बरसेगा पानी जानता हूं।
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मुहब्बत, प्यार, खुश्बू, दोस्ती, दिल,
मैं सब लफ्जों के मानी जानता हूं।
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वो चुप रहकर भी क्या-क्या कह रहा है,
मैं उसकी बेजुबानी जानता हूं।
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तेरे क़िस्सों में आखि़र क्या मिलेगा,
वही राजा या रानी जानता हूं।
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बहुत चीख़ेगा फिर रोने लगेगा,
तेरी आदत पुरानी जानता हूं।
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मुझे नीलाम कर देगी किसी दिन,
तुझे ऐ ज़िन्दगानी जानता हूं।

Saturday, August 7, 2010

मेरे प्रिय रचनाकार-प्रताप दीक्षित जी

            आदरणीय प्रताप दीक्षित जी आगरा के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आपका जन्म 7,जनवरी सन् 1932 को ग्राम-परा जिला-भिण्ड(मध्य प्रदेश) में हुआ। आपके तीन कविता संग्रह अब तक प्रकाशित हैं। ‘बांसों के वन‘, सन् 1984, ‘अंजुरी भर बाजरा‘, 2003 तथा ‘हमाई बोली हमाए गीत‘, 2005
मेरी इतनी हैसियत नहीं है कि मैं आदरणीय प्रताप जी के विषय में कुछ कह सकूं। इसके लिए मैं क0मुं0 हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ आगरा के तत्कालीन निदेशक प्रो0 जयसिंह जी द्वारा प्रताप जी के काव्य संग्रह ‘अंजुरी भर बाजरा‘ की प्रस्तावना में कहे गए शब्दों से काम चलाता हूं-
‘‘आप कल्पना कीजिए एक ऐसी नदी की जिसका जन्म अग्नि की कोख से हुआ हो। जो ऊपर से शान्त, गम्भीर और अद्भुत लयात्मक प्रवाह के साथ निस्संग भाव से बही जा रही है, किन्तु उसके भीतर अपनी जननी का ताप और परिवेशगत उत्तेजनाओं की उद्दाम खलबलाहट है। यदि आप इसके किनारे-किनारे चलेंगे तो उसके एक रस मंद-मंद प्रवाह से आप पहले परिचित होंगे फिर रीझेंगे और फिर अन्ततः खीझने लगेंगे, किन्तु जैसे ही आप इस नदी में आगा-पीछा सोचे बिना कूद पड़ेंगे आप इसके संक्रामक ताप और आत्मा की पोर-पोर को छू लेने वाली खलबलाहट में इस कदर डूबेंगे कि आप, आप नहीं रह जायेंगे। बन जायेंगे इस नदी के समूचे अस्तित्व का अभिन्न अंश और तब यह नदी आपमें होगी और आप होंगे नदी में। इस नदी में जाते ही आपके अस्तित्व का कुंभ फूट जायेगा और कुंभ-जल नदी में समाकर समूचे प्रवाह को अधिक गति दे पाने में सक्षम होगा।
        आज यहां मेरे प्रिय रचनाकार श्रृंखला में आदरणीय प्रताप जी के दो गीत प्रस्तुत हैं। अच्छे लगें तो प्रताप जी के अच्छे स्वास्थ्य की कामना के साथ उन्हें सीधे भी बधाई दें। उनका सम्पर्क सूत्र है-

34-ए, इंदिरा कालोनी,
शाहगंज, आगरा- 282010
फोन-0562-2213401

गीत-एक

जिन्दगी कहां पर ये हमें खींच लाई है।
एक ओर कुआं यहां एक ओर खाई है।

चुगलखोर मौसम का जोरों पर धन्धा है।
लालची भविष्य और वर्तमान अन्धा है।
दागदार चूनर को ओढ़े है चांदनी,
सूरज के अंग-अंग पिती उछर आयी है।

उलट फेर करनी औ कथनी के खातों में।
मधुवन की बागडोर पतझर के हाथों में।
बगुले हैं सिखा रहे हंसों को नैतिकता,
हो रही यहां पर ये कौन सी पढ़ाई है।

ज्वार और भाटों का अनुचर तूफान है।
सगर की छाती पर टूटा जलयान है। 
ऐसी स्थितियों में आप ही बताइए,
जायें किस ओर हम तटों से लड़ाई है।

जातिवाद फैल रहा द्रुमों में, लताओं में।
भाई-भतीजावाद सावनी घटाओं में।
भूखी है मेड़ और प्यासा हर खेत है,
गांव-गांव टहल रही डायन मंहगाई है।
गीतों के शब्द सुघर भाव विद्रूप हैं।
अर्थ को फटकने की कोशिश में सूप हैं।
सहित्यिक गंगा में कैसे हम स्नान करें,
घाटों पर पंडों ने फैला दी काई है।

.
.
गीत-दो

जिनके गीत बिना बैशाखी
होते खड़े नहीं।
उन पर क्या आश्चर्य
कि वे शिखरों पर चढ़े नहीं।

जो दीखे तक नहीं कभी 
हमको संघर्षों में।
जो मनुष्य से बने देवता
कुछ ही वर्षों में।
नाम भले मिल जायें स्वर्ण-
अक्षरों से होंगे पर,
पन्ने जड़े नहीं।

चयन बड़ी चतुराई से-
जो लहरों का करते।
कभी किसी के, कभी किसी के
संग में हैं बहते।
जहां सिर्फ पूजा होती-
बंटता परसाद नहीं-
उस मंदिर की कभी 
सीढ़ियों पर ये चढ़े नहीं।

पास हमारे इनकी 
सच्चाई का लेखा है।
बिना बात के डंक-
मारते हमने देखा है।
जिस-जिस पत्तल में खाया,
उसमें ही छेद किया,
फिर भी हमने इन्हें 
शर्म से देखा गढ़े नहीं।

हैं इनका गन्तव्य न कोई
सुविधाभोगी हैं।
आत्म प्रशंसा करने-
सुनने के ये रोगी हैं।
इनके घर का पानी भरते
पंत, निराला हैं।
वैसे जितना कहते-
उतना हैं ये पढ़े नहीं। 

Monday, July 26, 2010

मेरे प्रिय रचनाकार-निखिल सन्यासी

         यह हमारे समय का खासकर हिन्दी पट्टी का दुर्भाग्य है कि हम प्रतिभाओं को जीते जी पहचान नहीं पाते, उन्हें उचित स्थान नहीं दे पाते। नजीर, दुष्यन्त, मुक्तिबोध आदि इसके साक्षात प्रमाण हैं और यह तो वे चन्द नाम हैं जो कम से कम प्रकाश में तो आये, उन्हें कभी तो उनका सही स्थान प्राप्त हुआ। तमाम-तमाम नाम आज भी ऐसे होंगे जिन्हें कम ही लोग पहचानते हैं। उनके भाग्य में सिर्फ एक ही कमी है- उन्हें उनका आलोचक नहीं मिला। स्व0हरजीत, स्व0 आनन्द शर्मा जी, आदरणीय निखिल जी आदि ऐसे ही रचनाकार हैं जिनके बारे में मुझे लगता है कि उन्हें जो स्थान प्राप्त हुआ वे उससे कहीं ऊंचे स्थान के हकदार थे और हैं। दूसरी ओर ऐसे भी तथाकथित साहित्यकार हैं, जिन्हें साहित्य का क ख ग भी नहीं आता और उन्होंने जीते जी गली-कूंचे से लेकर देश के प्रतिष्ठित सम्मान को भी प्राप्त किया है। हांलाकि मुझे विश्वास है कि वक्त की झाड़ू एक दिन सारा कूड़ा-कचरा साफ कर देगी और गुमनामी के अंधेरों में खोये सारे रत्न अपनी पूरी आभा के साथ साहित्य और मानवता को आलोकित करेंगे। इसी भावना से मैंने स्व0 हरजीत जी की पांच ग़ज़लें पिछली बार प्रस्तुत की थी और आज इसी क्रम में ‘मेरे प्रिय रचनाकार‘ श्रृंखला में आगरा के आदरणीय निखिल जी के अभी हाल ही में प्रकाशित गीत संग्रह ‘बांसुरी दर्द की‘ से दो गीत प्रस्तुत कर रहा हूं. जुलाई 1937 को उत्तर प्रदेश के जिला मैनपुरी में जन्मे निखिल सन्यासी जी का पूरा नाम गोविन्द बिहारी सक्सैना है। आपके ‘यादों के चम्पई बबूल‘ (काव्य संग्रह) अनुप्रिया, कांटा और कसक, रिश्ते, नया अलबम (उपन्यास) प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल ही में उनका नया काव्य संग्रह ‘बांसुरी दर्द की' प्रकाशित हुआ है। ये तो उनका बहुत छोटा सा औपचारिक परिचय है। सही परिचय तो उनका वही जान सकता है जो उनसे रूबरू हो चुका हो। पूरा जीवन संघर्षों के दरम्यान बिताने के पश्चात भी अपने पूरे चरित्र की रक्षा के साथ कैसे जिया जाता है, इसकी जीती जागती मिसाल हैं निखिल जी। 
    मुझे लिखने की आवष्यकता नहीं आप स्वयं महसूस करेंगे कि उन्होंने  एक-एक पंक्ति को किस तरह भोगा है उसे जिया है और गाया है। शिल्प की दृश्टि से दूसरा गीत तो अद्भुत है हम जैसे नये यात्रियों के लिए तो पूरी गाइड है। मुखड़े में किये गये प्रयोग को निखिल जी ने जिस कुशलता से पूरे गीत में निभाया है यह उन्हीं से संभव है. ऐसा लगता है जैसे पूरे बन्द को पहले खुद जिया और उसके बाद अन्त में एक सूक्ति वाक्य की तरह अनुभवों का निचोड़ प्रस्तुत कर दिया हो। 
 आपको गीत अच्छे लगें तो आप निखिल जी को उनके मोबाइल न0 91-9997186614 पर या उनके स्थाई पते- 37ए@73, नई आबादी, नगला पदी, दयालबाग, आगरा(उ0प्र0)-282005 पर बधाई दे सकते हैं।



गीत-एक
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       साधो! रिश्ते नाते झूठे
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सुविधाओं के सन्धि-पत्र पर 
सबके लगे अंगूठे.
साधो रिश्ते नो झूठे.
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बड़े जतन से किये इकट्ठे 
कुछ रोड़े कुछ पत्थर.
और करीने से चुन-चुनकर 
खड़ा किया अपना घर.
किन्तु पता क्या था सारा श्रम 
व्यर्थ चला जायेगा.
पल में सारा कुछ बिखेर
दुर्देव खिलखिलायेगा.
लेकिन अपनी धुन के पक्कों
से कोई कब जीता,
गत-आगत बनकर लौटेगा 
लेकर रंग अनूठे.
.
जब से बदला है मौसम 
रंग बदल गये सुख दुख के.
नजर बचाकर लोग निकल
जाते हैं चुपके-चुपके.
यह भी फेर दिनों का
सपने आते सकुचाते हैं.
जागे हुए रात कटती
दिन संशय के खाते में.
पर इनसे घबराना कैसा
यह भी तो जीवन है.
सच की तपन न सह पाते 
अनुमान निकलते झूठे.
.
सब दरवाजे बन्द हो गए
बन्द हो गईं राहें.
आशा के पंछी पिंजरे में 
घुटती-मरती चाहें.
ऐसे-कैसे उमर कटेगी
हर पल रोते-गाते.
स्नेहहीन दीपक की बुझती
बाती को उकसाते
किश्तों में मरने से अच्छा
एक बार मर जाना
चिन्ताओं से मुक्ति मिलेगी
कोई रोये रूठे.
..

      गीत-दो
.
    अमृत मंथन
.
आंख में स्वप्न आंजे हुए
हम भटकते रहे उम्र भर.
सिद्धि से साध्य का यश बड़ा
साधकों ने बताया हमें।

अश्रु का कर्ज सिर तक चढ़ा
सांस रहते चुकेगा नहीं.
कोशिशें लाख कर लीजिए
रथ समय का रूकेगा नहीं.
चाह की आंख से मेघ बन
हम बरसते रहे उम्र भर.
तृप्ति से प्यास का घट बड़ा
मरूथलों ने  बताया हमें.
.
हर तरफ जाल फैले हुए
हर कदम एक संघर्ष है
नोंच फेंके मुखौटे सभी 
हारकर भी हमें हर्ष है 
हौसलों ने हमें बल दिया
हम उलझते रहे उम्र भर
जीत से हार का सुख बड़ा
अनुभवों ने बताया हमें.
.
एक पल भी ठहरती नहीं
ज़िन्दगी एक संग्राम है
मन दषानन अगर है कभी
तो कभी रागमय राम है
बांसुरी दर्द की फूंककर 
हम थिरकते रहे उम्र भर
धर्म से कर्म का पद बड़ा
योगियों ने बताया हमें
.
जन्म से मृत्यु तक हम जिये
एक ही जन्म में सौ जनम
झूठ को झांकियों में सजा
वक्त-बेवक्त खाई कसम
रेत के ढेर पर हो खड़े
हम अकड़ते रहे उम्र भर
झूठ कोई न सच से बड़ा
झूठ ने ही बताया हमें
.
क्या हमारा यही दोष है
गन्ध छीनी नहीं फूल से
सब हलाहल स्वयं पी लिया
बैर साधा न प्रतिकूल से
क्रास पर किन्तु फिर भी चढ़े
हम तड़पते रहे उम्र भर
त्याग का मोल तप से बड़ा
भोगियों ने बताया हमें
.
सिर्फ विस्तार की चाह में
हिमशिखर सिन्धु से जा मिले
स्वप्न पूरे न फिर भी हुए
चाहतों के लुटे काफिले
आस्था के युगलपाश में
हम सिमटते रहे उम्र भर
सिन्धु से सीप का मुंह बड़ा
मोतियों ने बताया हमें.
.
जिस तरह चल रहा है चले
खेल रूकना नहीं चाहिए
कौन किसकी जगह ले रहा
देखिए देखते जाइए
क्रम न टूटे कभी सृष्टि का 
हम बिखरते रहे उम्र भर
वृक्ष से बीज होता बड़ा
आंधियों ने बताया हमें
..

                                                                                              

Thursday, July 15, 2010

हरजीत, मेरी ऩजर से

                      कुछ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध ग़ज़लकार अग्रज श्री अशोक रावत जी ने एक ग़ज़ल संग्रह पढ़ने के लिए दिया था. संग्रह का नाम था ‘एक पुल‘ और ग़ज़लकार का नाम था- हरजीत. नाम पहली बार पढ़ा था. घर जाकर संग्रह की ग़ज़लों को पढ़ा. ग़ज़लों ने पहली ही बार में अपनी गिरफ्त में ले लिया. अगले दिन तुरन्त पूरे संग्रह की फोटो स्टेट करायी और आज भी संग्रह उसी रूप में मेरे पास सुरक्षित है. उस ग़ज़ल संग्रह की अहमियत का अन्दाज़ा आप यूं लगा सकते हैं कि मेरे पास तक़रीबन पचासेक ग़ज़ल संग्रह होंगे लेकिन मेरी नज़र में उससे अच्छा कोई नहीं. हिन्दी में ग़ज़ल को प्रतिष्ठित करने में दुष्यन्त का योगदान सर्वोपरि है. इससे कोई इन्कार नहीं कि उनकी ग़ज़लों का कैनवास निश्चित रूप से बहुत बड़ा है, लेकिन मैं जब भी हरजीत जी की ग़ज़लों से गुज़रता हूं तो महसूस करता हूं कि हरजीत हिन्दी में ग़ज़ल विधा का आदर्श रूप निश्चित रूप से प्रस्तुत करते हैं. ये हरजीत का दुर्भाग्य था कि उन्हें कोई आलोचक नहीं मिला. आज यहां हरजीत जी की पांच ग़ज़लों से आप सबको गुज़ारने का मन है. ग़ज़लें पढ़ें और स्वयं उस रोमांच से गुज़रें जिससे मैं अक्सर गुज़रता हूं-

                                                                                    1-
अपने मन का रूझान क्या देखूं.
लौटना है थकान क्या देखूं.
.
आंख टूटी सड़क से हटती नहीं,
रास्ते के मकान क्या देखूं.
.
मैंने देखा है उसको मरते हुए,
ये ख़बर ये बयान क्या देखूं.
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कहने वालों के होठ देख लिये,
सुनने वालों के कान क्या देखूं.
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इस तरफ से खड़ी चढ़ाई है,
उस तरफ से ढलान क्या देखूं.
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2-

मुझको मेरे ही खेत में धरती उतार दे.
मैं धान बोऊं और वो पानी उतार दे.
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पानी बढ़ा हुआ है छतें अब ज़मीन हैं,
कच्चे घरों में धूप की कश्ती उतार दे.
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मन को फ़क़ीर कर तो कोई बात भी बने
ओढ़ी हुई ये तन की फ़क़ीरी उतार दे.
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तू अपने घर में बिखरी हुई ख़ुश्बुयें पहन,
अब ये लिबासे-ख़ानाबदोशी उतार दे.
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खिड़की के पास आऊं तो भीतर भी आ सकूं,
चिड़िया ये कह रही है कि जाली उतार दे.
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3-
एक बड़े दरवाज़े में था छोटा सा दरवाज़ा और.
अस्ल हक़ीक़त और थी लेकिन सबका था अन्दाज़ा और.
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मैं तो पहले ही था इतने रंगों से बेचैन बहुत,
मेरी बेचैनी देखी तो उसने रंग नवाज़ा और.
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कितने सारे लोग यहां हैं अपनी जगह से छिटके हुए,
चेहरे और लिबास भी और हैं हालात और तक़ाज़ा और.
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जब तक इसकी दरारों को इस घर के लोग नहीं भरते,
तब तक इस घर की दीवारें भुगतेंगी ख़मियाज़ा और.
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ख़ुश्बू रंग परिन्दे पत्ते बेलें दलदल जिसमें थे,
उस जंगल से लौट के पाया हमने ख़ुद को ताज़ा और.
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4-
अब इन घरों से दूर निकलने की बात कर.
ठहराव आ गया है तो चलने की बात कर.
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मेरी तरह जो तूने अगर देखना है सब,
मेरी तरह ही ख़ुद को बदलने की बात कर.
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तू लफ़्ज है तो मेरी किसी नज़्म में भी आ,
इस रूह के सुरों में भी ढलने की बात कर.
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पगडण्डियां न हों तो सफ़र का मज़ा नहीं,
काली सड़क पे रोज़ न चलने की बात कर.
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बहना है तुझको फिर से समन्दर की रूह तक,
अब धूप आ गई है पिघलने की बात कर.
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मुद्दत के बाद आज मिली है मुझे फ़ुर्सत,
गिरने की बात कर न संभलने की बात कर.
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5-
धूप में कुछ लोग आये और ये कहने लगे.
हम तो सबके साथ हैं जो चाहे अपना साथ दे.
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अपनी पहली ख्वाहिशें को भूलने के बाद अब,
ख्वाहिशों और ज़िन्दगी में फ़र्क़ सारे मिट गये.
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बीज भी हैं धूप भी पानी भी है मौसम भी है,
कोंपलें फूटें तो मिट्टी से नई ख़ुशबू मिले.
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इस ज़मीं पर नींद के आगाज़ से पहले कहीं,
क्या सफ़र करती थी दुनिया जागते ही जागते.
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वक्त ने ज़र्रों को बारीकी से तोड़ा तो मगर,
रूक गये वो टूटने से और कितना टूटते.
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रजजगा दिनभर मेरी आंखें लिये फिरता रहा,
शाम लौटा साथ लेकर वो बहुत से रतजगे.
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एक अनुरोधः-हरजीत जी के विषय में उनके ग़ज़ल संग्रह ‘एक पुल‘ के अलावा मेरा परिचय सिफ़र ही है. मेरा सभी मित्रों/अग्रजों से निवेदन है कि यदि वे हरजीत जी के विषय में कोई जानकारी या लिंक(नेट पर) रखते हैं तो कृपया साझा करने का कष्ट करें.