Monday, July 26, 2010

मेरे प्रिय रचनाकार-निखिल सन्यासी

         यह हमारे समय का खासकर हिन्दी पट्टी का दुर्भाग्य है कि हम प्रतिभाओं को जीते जी पहचान नहीं पाते, उन्हें उचित स्थान नहीं दे पाते। नजीर, दुष्यन्त, मुक्तिबोध आदि इसके साक्षात प्रमाण हैं और यह तो वे चन्द नाम हैं जो कम से कम प्रकाश में तो आये, उन्हें कभी तो उनका सही स्थान प्राप्त हुआ। तमाम-तमाम नाम आज भी ऐसे होंगे जिन्हें कम ही लोग पहचानते हैं। उनके भाग्य में सिर्फ एक ही कमी है- उन्हें उनका आलोचक नहीं मिला। स्व0हरजीत, स्व0 आनन्द शर्मा जी, आदरणीय निखिल जी आदि ऐसे ही रचनाकार हैं जिनके बारे में मुझे लगता है कि उन्हें जो स्थान प्राप्त हुआ वे उससे कहीं ऊंचे स्थान के हकदार थे और हैं। दूसरी ओर ऐसे भी तथाकथित साहित्यकार हैं, जिन्हें साहित्य का क ख ग भी नहीं आता और उन्होंने जीते जी गली-कूंचे से लेकर देश के प्रतिष्ठित सम्मान को भी प्राप्त किया है। हांलाकि मुझे विश्वास है कि वक्त की झाड़ू एक दिन सारा कूड़ा-कचरा साफ कर देगी और गुमनामी के अंधेरों में खोये सारे रत्न अपनी पूरी आभा के साथ साहित्य और मानवता को आलोकित करेंगे। इसी भावना से मैंने स्व0 हरजीत जी की पांच ग़ज़लें पिछली बार प्रस्तुत की थी और आज इसी क्रम में ‘मेरे प्रिय रचनाकार‘ श्रृंखला में आगरा के आदरणीय निखिल जी के अभी हाल ही में प्रकाशित गीत संग्रह ‘बांसुरी दर्द की‘ से दो गीत प्रस्तुत कर रहा हूं. जुलाई 1937 को उत्तर प्रदेश के जिला मैनपुरी में जन्मे निखिल सन्यासी जी का पूरा नाम गोविन्द बिहारी सक्सैना है। आपके ‘यादों के चम्पई बबूल‘ (काव्य संग्रह) अनुप्रिया, कांटा और कसक, रिश्ते, नया अलबम (उपन्यास) प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल ही में उनका नया काव्य संग्रह ‘बांसुरी दर्द की' प्रकाशित हुआ है। ये तो उनका बहुत छोटा सा औपचारिक परिचय है। सही परिचय तो उनका वही जान सकता है जो उनसे रूबरू हो चुका हो। पूरा जीवन संघर्षों के दरम्यान बिताने के पश्चात भी अपने पूरे चरित्र की रक्षा के साथ कैसे जिया जाता है, इसकी जीती जागती मिसाल हैं निखिल जी। 
    मुझे लिखने की आवष्यकता नहीं आप स्वयं महसूस करेंगे कि उन्होंने  एक-एक पंक्ति को किस तरह भोगा है उसे जिया है और गाया है। शिल्प की दृश्टि से दूसरा गीत तो अद्भुत है हम जैसे नये यात्रियों के लिए तो पूरी गाइड है। मुखड़े में किये गये प्रयोग को निखिल जी ने जिस कुशलता से पूरे गीत में निभाया है यह उन्हीं से संभव है. ऐसा लगता है जैसे पूरे बन्द को पहले खुद जिया और उसके बाद अन्त में एक सूक्ति वाक्य की तरह अनुभवों का निचोड़ प्रस्तुत कर दिया हो। 
 आपको गीत अच्छे लगें तो आप निखिल जी को उनके मोबाइल न0 91-9997186614 पर या उनके स्थाई पते- 37ए@73, नई आबादी, नगला पदी, दयालबाग, आगरा(उ0प्र0)-282005 पर बधाई दे सकते हैं।



गीत-एक
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       साधो! रिश्ते नाते झूठे
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सुविधाओं के सन्धि-पत्र पर 
सबके लगे अंगूठे.
साधो रिश्ते नो झूठे.
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बड़े जतन से किये इकट्ठे 
कुछ रोड़े कुछ पत्थर.
और करीने से चुन-चुनकर 
खड़ा किया अपना घर.
किन्तु पता क्या था सारा श्रम 
व्यर्थ चला जायेगा.
पल में सारा कुछ बिखेर
दुर्देव खिलखिलायेगा.
लेकिन अपनी धुन के पक्कों
से कोई कब जीता,
गत-आगत बनकर लौटेगा 
लेकर रंग अनूठे.
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जब से बदला है मौसम 
रंग बदल गये सुख दुख के.
नजर बचाकर लोग निकल
जाते हैं चुपके-चुपके.
यह भी फेर दिनों का
सपने आते सकुचाते हैं.
जागे हुए रात कटती
दिन संशय के खाते में.
पर इनसे घबराना कैसा
यह भी तो जीवन है.
सच की तपन न सह पाते 
अनुमान निकलते झूठे.
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सब दरवाजे बन्द हो गए
बन्द हो गईं राहें.
आशा के पंछी पिंजरे में 
घुटती-मरती चाहें.
ऐसे-कैसे उमर कटेगी
हर पल रोते-गाते.
स्नेहहीन दीपक की बुझती
बाती को उकसाते
किश्तों में मरने से अच्छा
एक बार मर जाना
चिन्ताओं से मुक्ति मिलेगी
कोई रोये रूठे.
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      गीत-दो
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    अमृत मंथन
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आंख में स्वप्न आंजे हुए
हम भटकते रहे उम्र भर.
सिद्धि से साध्य का यश बड़ा
साधकों ने बताया हमें।

अश्रु का कर्ज सिर तक चढ़ा
सांस रहते चुकेगा नहीं.
कोशिशें लाख कर लीजिए
रथ समय का रूकेगा नहीं.
चाह की आंख से मेघ बन
हम बरसते रहे उम्र भर.
तृप्ति से प्यास का घट बड़ा
मरूथलों ने  बताया हमें.
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हर तरफ जाल फैले हुए
हर कदम एक संघर्ष है
नोंच फेंके मुखौटे सभी 
हारकर भी हमें हर्ष है 
हौसलों ने हमें बल दिया
हम उलझते रहे उम्र भर
जीत से हार का सुख बड़ा
अनुभवों ने बताया हमें.
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एक पल भी ठहरती नहीं
ज़िन्दगी एक संग्राम है
मन दषानन अगर है कभी
तो कभी रागमय राम है
बांसुरी दर्द की फूंककर 
हम थिरकते रहे उम्र भर
धर्म से कर्म का पद बड़ा
योगियों ने बताया हमें
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जन्म से मृत्यु तक हम जिये
एक ही जन्म में सौ जनम
झूठ को झांकियों में सजा
वक्त-बेवक्त खाई कसम
रेत के ढेर पर हो खड़े
हम अकड़ते रहे उम्र भर
झूठ कोई न सच से बड़ा
झूठ ने ही बताया हमें
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क्या हमारा यही दोष है
गन्ध छीनी नहीं फूल से
सब हलाहल स्वयं पी लिया
बैर साधा न प्रतिकूल से
क्रास पर किन्तु फिर भी चढ़े
हम तड़पते रहे उम्र भर
त्याग का मोल तप से बड़ा
भोगियों ने बताया हमें
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सिर्फ विस्तार की चाह में
हिमशिखर सिन्धु से जा मिले
स्वप्न पूरे न फिर भी हुए
चाहतों के लुटे काफिले
आस्था के युगलपाश में
हम सिमटते रहे उम्र भर
सिन्धु से सीप का मुंह बड़ा
मोतियों ने बताया हमें.
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जिस तरह चल रहा है चले
खेल रूकना नहीं चाहिए
कौन किसकी जगह ले रहा
देखिए देखते जाइए
क्रम न टूटे कभी सृष्टि का 
हम बिखरते रहे उम्र भर
वृक्ष से बीज होता बड़ा
आंधियों ने बताया हमें
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Thursday, July 15, 2010

हरजीत, मेरी ऩजर से

                      कुछ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध ग़ज़लकार अग्रज श्री अशोक रावत जी ने एक ग़ज़ल संग्रह पढ़ने के लिए दिया था. संग्रह का नाम था ‘एक पुल‘ और ग़ज़लकार का नाम था- हरजीत. नाम पहली बार पढ़ा था. घर जाकर संग्रह की ग़ज़लों को पढ़ा. ग़ज़लों ने पहली ही बार में अपनी गिरफ्त में ले लिया. अगले दिन तुरन्त पूरे संग्रह की फोटो स्टेट करायी और आज भी संग्रह उसी रूप में मेरे पास सुरक्षित है. उस ग़ज़ल संग्रह की अहमियत का अन्दाज़ा आप यूं लगा सकते हैं कि मेरे पास तक़रीबन पचासेक ग़ज़ल संग्रह होंगे लेकिन मेरी नज़र में उससे अच्छा कोई नहीं. हिन्दी में ग़ज़ल को प्रतिष्ठित करने में दुष्यन्त का योगदान सर्वोपरि है. इससे कोई इन्कार नहीं कि उनकी ग़ज़लों का कैनवास निश्चित रूप से बहुत बड़ा है, लेकिन मैं जब भी हरजीत जी की ग़ज़लों से गुज़रता हूं तो महसूस करता हूं कि हरजीत हिन्दी में ग़ज़ल विधा का आदर्श रूप निश्चित रूप से प्रस्तुत करते हैं. ये हरजीत का दुर्भाग्य था कि उन्हें कोई आलोचक नहीं मिला. आज यहां हरजीत जी की पांच ग़ज़लों से आप सबको गुज़ारने का मन है. ग़ज़लें पढ़ें और स्वयं उस रोमांच से गुज़रें जिससे मैं अक्सर गुज़रता हूं-

                                                                                    1-
अपने मन का रूझान क्या देखूं.
लौटना है थकान क्या देखूं.
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आंख टूटी सड़क से हटती नहीं,
रास्ते के मकान क्या देखूं.
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मैंने देखा है उसको मरते हुए,
ये ख़बर ये बयान क्या देखूं.
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कहने वालों के होठ देख लिये,
सुनने वालों के कान क्या देखूं.
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इस तरफ से खड़ी चढ़ाई है,
उस तरफ से ढलान क्या देखूं.
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2-

मुझको मेरे ही खेत में धरती उतार दे.
मैं धान बोऊं और वो पानी उतार दे.
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पानी बढ़ा हुआ है छतें अब ज़मीन हैं,
कच्चे घरों में धूप की कश्ती उतार दे.
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मन को फ़क़ीर कर तो कोई बात भी बने
ओढ़ी हुई ये तन की फ़क़ीरी उतार दे.
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तू अपने घर में बिखरी हुई ख़ुश्बुयें पहन,
अब ये लिबासे-ख़ानाबदोशी उतार दे.
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खिड़की के पास आऊं तो भीतर भी आ सकूं,
चिड़िया ये कह रही है कि जाली उतार दे.
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3-
एक बड़े दरवाज़े में था छोटा सा दरवाज़ा और.
अस्ल हक़ीक़त और थी लेकिन सबका था अन्दाज़ा और.
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मैं तो पहले ही था इतने रंगों से बेचैन बहुत,
मेरी बेचैनी देखी तो उसने रंग नवाज़ा और.
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कितने सारे लोग यहां हैं अपनी जगह से छिटके हुए,
चेहरे और लिबास भी और हैं हालात और तक़ाज़ा और.
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जब तक इसकी दरारों को इस घर के लोग नहीं भरते,
तब तक इस घर की दीवारें भुगतेंगी ख़मियाज़ा और.
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ख़ुश्बू रंग परिन्दे पत्ते बेलें दलदल जिसमें थे,
उस जंगल से लौट के पाया हमने ख़ुद को ताज़ा और.
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4-
अब इन घरों से दूर निकलने की बात कर.
ठहराव आ गया है तो चलने की बात कर.
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मेरी तरह जो तूने अगर देखना है सब,
मेरी तरह ही ख़ुद को बदलने की बात कर.
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तू लफ़्ज है तो मेरी किसी नज़्म में भी आ,
इस रूह के सुरों में भी ढलने की बात कर.
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पगडण्डियां न हों तो सफ़र का मज़ा नहीं,
काली सड़क पे रोज़ न चलने की बात कर.
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बहना है तुझको फिर से समन्दर की रूह तक,
अब धूप आ गई है पिघलने की बात कर.
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मुद्दत के बाद आज मिली है मुझे फ़ुर्सत,
गिरने की बात कर न संभलने की बात कर.
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5-
धूप में कुछ लोग आये और ये कहने लगे.
हम तो सबके साथ हैं जो चाहे अपना साथ दे.
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अपनी पहली ख्वाहिशें को भूलने के बाद अब,
ख्वाहिशों और ज़िन्दगी में फ़र्क़ सारे मिट गये.
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बीज भी हैं धूप भी पानी भी है मौसम भी है,
कोंपलें फूटें तो मिट्टी से नई ख़ुशबू मिले.
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इस ज़मीं पर नींद के आगाज़ से पहले कहीं,
क्या सफ़र करती थी दुनिया जागते ही जागते.
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वक्त ने ज़र्रों को बारीकी से तोड़ा तो मगर,
रूक गये वो टूटने से और कितना टूटते.
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रजजगा दिनभर मेरी आंखें लिये फिरता रहा,
शाम लौटा साथ लेकर वो बहुत से रतजगे.
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एक अनुरोधः-हरजीत जी के विषय में उनके ग़ज़ल संग्रह ‘एक पुल‘ के अलावा मेरा परिचय सिफ़र ही है. मेरा सभी मित्रों/अग्रजों से निवेदन है कि यदि वे हरजीत जी के विषय में कोई जानकारी या लिंक(नेट पर) रखते हैं तो कृपया साझा करने का कष्ट करें.





Wednesday, July 7, 2010

कामनवैल्थ के स्वागत के लिए तैयार आगरा

             कुछ दिन से देख रहा हूं कि आगरा अब सिर्फ पुराना अग्रवन और अकबराबाद वाला आगरा नहीं रहा। शहर की पुरानी गलियों में मीरो-गालिब के अंदाज में घूमते लोगों, चैराहे पर पनवाड़ी के रंगीले हाथों से पान बनवाते अड्डेबाजी में लीन और संकरी गलियों में सदियों से जमे मकानों की तीसरी-चौथी मंजिल से पतंग और कबूतर उड़ाते, सुबह-सुबह सूरज की पहली किरण के साथ अलसाती हुई आंखों को मलते हुए जलेबी-बेड़ई के नाश्ते को उदरस्थ करते लोगों के दृश्यों वाला ही आगरा नहीं है अब। आगरा अब सिर्फ जौहरी बाजार, किनारी बाजार, फव्वारा, रावतपाड़ा, राजा की मण्डी सुभाष बाजार, दरेसी, जामा मस्जिद के चारों ओर चहकता और महकता नहीं है। चमचमाते माल्स में महंगी फरारी और वाक्स वैगन से उतरने वाले हाईहील्स, सदर में रात को सदरिंग करते नई हवा के ताजे झोंके और मल्टीप्लैक्स की शानदार सीटों को जानदार करने वाले भी इस शहर की शान हैं. नए और पुराने का ये अद्भुत संगम अगर कहीं देखना हो तो आगरा से बढ़िया उदाहरण आपको कम ही मिलेंगे। 
     तीन अक्टूबर से नई दिल्ली में होने वाले कामनवैल्थ खेलों के लिए आने वाले मेहमानों के स्वागत के लिए आगरा को भी तैयार किया जा रहा है। तमाम नए कार्य शहर की सूरत और सीरत बदलने के लिए किए जा चुके है और किए जा रहे हैं।  अंतर्राष्टीय स्तर की नई मार्कोपोलो बसें, शहर की लाइफ लाइन एम0जी0रोड पर जगह-जगह चमचमाते शौचालय, बस प्रतीक्षालय, साज सज्जा के साथ दमकते होटलों की कतारें, साफ-सुथरे चौड़े चौराहे, अंतर्राज्यीय बस स्टेशन, बड़े-बड़े माल्स के साथ मुहब्बत की नगरी जो अब वास्तव में महानगर का रूप ले चुकी है, पूरी दुनिया को अमन और मुहब्बत की सौगात देने के लिए तैयार है। 
मैंने अपने मोबाइल से आगरा के कुछ बदलावों को आप सबके लिए कैद किया है। आप भी नए आगरा की तस्वीर से रूबरू हों और आगरा आने का कार्यक्रम बनायें आगरा आपके स्वागत में पलकें बिछाये हुए है -