Tuesday, June 29, 2010
चित्रों से
आजकल बिजली की समस्या के कारण नेट पर कम समय मिल पा रहा है। दिन भर दफ्तर और शाम को अधिकांश समय बिना बिजली के। चूंकि आगरा की बिजली व्यवस्था टोरेंट कम्पनी को दे दी गई है और वे जोर-शोर से मामला फुल प्रूफ करने में लगे हैं सो भविष्य अच्छा करने के लिए वर्तमान में कुछ दिन तो कष्ट सहने ही होंगे। ख़ैर कहना ये चाह रहा था कि कम बिजली के कारण नई रचना के स्थान पर आज अपनेमोबाइल से खींचे कुछ फोटो आप सबकी नज़रे-इनायत हैं-
Friday, June 25, 2010
कविता
आज एक कविता पढ़वाने का मन है. कविता पुरानी क्या काफी पुरानी है. हालांकि आज इस कविता के अन्त से सहमत नहीं हूं लेकिन जैसी थी सो वैसी है का सहारा लेकर कविता प्रस्तुत है. अब इस फार्मेट में रचनाएं नहीं लिखता. देखिए कैसी है-
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रोशनी के नाम पर
*
रोशनी के नाम पर
कुछ टिमटिमाती लालटेनें
व्योम में ऊंचे टंगी उलटी
कि जैसे ढूंढती हों रास्ता
खुद का
निराशा से भरा मन लें.
*****
और नीचे झील
फैली
दूर धरती के क्षितिज तक
खूब गहरी और चक्करदार
जैसे आदमी का मन
कि जिसकी
थाह कोई
ले नहीं सकता.
*****
झील के इस ओर
मखमल के गलीचे सी
बिछी है दूब
जिस पर सरसराते खूब
सांप फन वाले
रौंदते जग को
अठखेलियॉं किल्लोल करते
पर नहीं चिन्ता
तनिक उस दूब की करते
सदा से जो
बिछी ही आ रही है
देह के नीच अभागी.
*****
झील के उस पार
ऊंचे पेड़
पंक्ति में खड़े चुपचाप
अपनी बेबसी पर
बहाते रोज ही आंसू
दोष देते उन हवाओं को
उड़ा जो ले गईं पत्ते सभी
पर एक भी ऐसी नहीं दिखता
कर सके जो उन हवाओं से बगावत.
*****
दृष्टि के है सामने
यह दृश्य
पूरे साठ वर्षों से
तथा संभावना
जिसके बदलने की
अनागत में नहीं देती दिखाई
दूर तक----
Tuesday, June 22, 2010
ग़ज़ल
माफ़ करियेगा लम्बे अन्तराल के बाद सामने आने की हिम्मत कर रहा हूं. ब्लागिंग का नशा ज़्यादा हो जाने के कारण मैंने जानबूझकर कुछ दिन की छुट्टी ले ली क्योंकि मैं किसी चीज़ को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे पाता. क्या करूं आदत से मज़बूर हूं. छुट्टी के बाद पता चला कि ब्लाग का पासवर्ड ही भूल गया। हर तरफ से कोशिश करने पर भी बात नहीं बनी। कल बड़े भाई अविनाश वाचस्पति जी से अग्रज सुभाष राय जी के सौजन्य से मुलाकात हुई. उनके निर्देश के बाद आज से फिर हाजिर हूं ब्लागिंग की उसी दुनिया में नई ऊर्जा लेकिन पुरानी ग़ज़ल के साथ उसी पुराने प्यार, मुहब्बत, लाड़, दुलार, अपनेपन की प्रत्याशा में......................
ग़ज़ल
कभी तो दर्ज होगी जुर्म की तहरीर थानों में.
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में.
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कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की,
परिन्दों का यकीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में.
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अजब हैं माइने इस दौर की गूँगी तरक्की के,
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में.
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कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल,
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में.
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भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन,
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में.
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नज़रअंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको,
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में.
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